यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 213

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्।।18।।


जो पुरुष कर्म में अकर्म देखे, कर्म माने आराधना अर्थात् आराधना करे और यह भी समझे कि करने वाला मैं नहीं हूँ बल्कि गुणों की अवस्था ही चिन्तन में हमें नियुक्त करती है, ‘मैं इष्ट द्वारा संचालित हूँ’- ऐसा देखे और जब इस प्रकार अकर्म देखने की क्षमता आ जाय और धारावाहिक रूप से कर्म होता रहे, तभी समझना चाहिये कि कर्म सही दिशा में हो रहा है। वही पुरुष मनुष्यों में बुद्धिमान् है, मनुष्यों में योगी है, योग से युक्त बुद्धिवाला है और सम्पूर्ण कर्मों को करने वाला है। उसके द्वारा कर्म करने में लेशमात्र भी त्रुटि नहीं रह जाती।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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