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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
उदाहरणार्थ गीता में जहाँ भी किसी कार्य में ‘वि’ उपसर्ग लगा है, उसकी विशेषता का द्योतक है, निकृष्टता का नहीं। यथा ‘योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।’ (गीता 5/7)- जो योग से युक्त है वह विशेष रूप से शुद्ध आत्मावाला, विशेष रूप से जीते अन्तःकरणवाला इत्यादि विशेषता के ही द्योतक हैं। इस प्रकार गीता में स्थान-स्थान पर ‘वि’ का प्रयोग हुआ है, जो विशेष पूर्णता का द्योतक है। इसी प्रकार ‘विकर्म’ भी विशिष्ट कर्म का द्योतक है जो प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के द्वारा सम्पादित होता है, जो शुभाशुभ संस्कार नहीं डालता। अभी आपने विकर्म देखा। रहा कर्म और अकर्म, जिसे अगले श्लोक में समझने का प्रयास करें। यदि यहाँ कर्म और अकर्म का विभाजन नहीं समझ सके तो कभी नहीं समझ सकेंगे-
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