यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 212

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


उदाहरणार्थ गीता में जहाँ भी किसी कार्य में ‘वि’ उपसर्ग लगा है, उसकी विशेषता का द्योतक है, निकृष्टता का नहीं। यथा ‘योगयुक्तो विशुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः।’ (गीता 5/7)- जो योग से युक्त है वह विशेष रूप से शुद्ध आत्मावाला, विशेष रूप से जीते अन्तःकरणवाला इत्यादि विशेषता के ही द्योतक हैं। इस प्रकार गीता में स्थान-स्थान पर ‘वि’ का प्रयोग हुआ है, जो विशेष पूर्णता का द्योतक है। इसी प्रकार ‘विकर्म’ भी विशिष्ट कर्म का द्योतक है जो प्राप्ति के पश्चात् महापुरुषों के द्वारा सम्पादित होता है, जो शुभाशुभ संस्कार नहीं डालता। अभी आपने विकर्म देखा। रहा कर्म और अकर्म, जिसे अगले श्लोक में समझने का प्रयास करें। यदि यहाँ कर्म और अकर्म का विभाजन नहीं समझ सके तो कभी नहीं समझ सकेंगे-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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