यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 21

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

संजय उवाच

एवमुक्तो हृषीकेशो गुडाकेशेन भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये स्थापयित्वा रथोत्तमम्।।24।।

भीष्मद्रोणप्रमुखतः सर्वेषां च महीक्षिताम्।
उवाच पार्थ प्श्यैतान्समवेतान्कुरूनिति।।25।।

संजय बोला- निद्राजयी अर्जुन द्वारा इस प्रकार कहे जाने पर हृदय के ज्ञाता श्रीकृष्ण ने दोनों सेनाओं के बीच भीष्म, द्रोण और ‘महीक्षिताम्’- शरीर रूपी पृथ्वी पर अधिकार जमाये हुये सम्पूर्ण राजाओं के बीच उत्तम रथ को खड़ा करके कहा - पार्थ! इन इकट्ठे हुए कौरवों को देख। यहाँ उत्तम रथ सोने-चाँदी का रथ नहीं है। संसार में उत्तम की परिभाषा नश्वर के प्रति अनुकूलता-प्रतिकूलता से की जाती है। यह परिभाषा अपूर्ण है। जो हमारे आत्मा, हमारे स्वरूप का सदैव साथ दे, वही उत्तम है। जिसके पीछे ‘अनुत्तम’-मलिनता न हो।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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