यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 209

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


अभी तक योगेश्वर श्रीकृष्ण ने कर्म करने पर बल दिया; किन्तु यह स्पष्टन नहीं किया कि कर्म क्या है? अध्याय दो में उन्होंने कर्म का नाम मात्र लिया कि अब इसी को तू निष्काम कर्म के विषय में सुन। उसकी विशेषताओं का वर्णन किया कि यह जन्म-मरण के महान् भय से रक्षा करता है। कर्म करते समय सावधानी का वर्णन किया, लेकिन यह नहीं बताया कि कर्म क्या है? अध्याय तीन में उन्होंने कहा कि ज्ञानमार्ग अच्छा लगे या निष्काम कर्मयोग, कर्म तो करना ही पड़ेगा। न तो कर्मों को त्यागने से कोई ज्ञानी होता है और न तो कर्मों को न आरम्भ करने से कोई निष्कर्मी। हठवश जो नहीं करते, वे दम्भी हैं।

इसलिये मन से इन्द्रियों को वश में करके कर्म कर। कौन-सा कर्म करें? तो बताया-नियत कर्म कर। अब यह निर्धारित कर्म है क्या? तो बोले-यज्ञ की प्रक्रिया ही नियम कर्म है। वह नवीन प्रश्न दयिा कि यज्ञ क्या है, जिसे करें तो कर्म हो जाय? वहाँ भी यज्ञ की उत्पत्ति को बताया, उसकी विशेषताओं का वर्णन किया; किन्तु यज्ञ नहीं बताया, जिससे कर्म को समझा जा सके। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कर्म क्या है? अब कहते हैं-अर्जुन! कर्म क्या है, अकर्म क्या है? इस विषय में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हैं, उसे भली प्रकार समझ लेना चाहिये।



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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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