विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
इसलिये मन से इन्द्रियों को वश में करके कर्म कर। कौन-सा कर्म करें? तो बताया-नियत कर्म कर। अब यह निर्धारित कर्म है क्या? तो बोले-यज्ञ की प्रक्रिया ही नियम कर्म है। वह नवीन प्रश्न दयिा कि यज्ञ क्या है, जिसे करें तो कर्म हो जाय? वहाँ भी यज्ञ की उत्पत्ति को बताया, उसकी विशेषताओं का वर्णन किया; किन्तु यज्ञ नहीं बताया, जिससे कर्म को समझा जा सके। अभी तक यह स्पष्ट नहीं हुआ कि कर्म क्या है? अब कहते हैं-अर्जुन! कर्म क्या है, अकर्म क्या है? इस विषय में बड़े-बड़े विद्वान् भी मोहित हैं, उसे भली प्रकार समझ लेना चाहिये।
|
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज