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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
चतुर्थ अध्याय
शौर्य, कर्म में प्रवृत्त रहने की क्षमता, पीछे न हटने का स्वभाव, सब भावों पर स्वामिभाव, प्रकृति के तीनों गुणों को काटने की क्षमता उसके स्वभाव में ढल जायेगी। वही कर्म और सूक्ष्म होने पर, मात्र सात्विक गुण कार्यरत रह जाने पर मन का शमन, इन्द्रियों का दमन, एकाग्रता, सरलता, ध्यान, समाधि, ईश्वरीय निर्देश, आस्तिकता इत्यादि ब्रह्म में प्रवेश दिलानेवाली स्वाभाविक क्षमता के साथ वही साधक ब्राह्मण श्रेणी का कहा जाता है। यह ब्राह्मण श्रेणी के कर्म की निम्नतम सीमा है। जब वही साधक ब्रह्म में स्थित हो जाता है, उस अन्तिम सीमा में वह स्वयं में न ब्राह्मण रहता है न क्षत्रिय, न वैश्य न शूद्र, किन्तु दूसरों के मार्गदर्शन हेतु वही ब्राह्मण है। कर्म एक ही है-नियत कर्म, आराधना। अवस्था-भेद से इसी कर्म को ऊँची-नीची चार सीढ़ियों में बाँटा। किसने बाँटा? किसी योगेश्वर ने बाँटा, अव्यक्त स्थितिवाले महापुरुष ने बाँटा। उसके कर्ता मुझ अविनाशी को अकर्ता ही जान। क्यों?-
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