यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 205

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


दो घण्टे आप आराधना में बैठते हैं, इस कर्म के लिये प्रयत्नशील होना चाहते हैं किन्तु दस मिनट भी अपने पक्ष में नहीं पाते। शरीर अवश्य बैठा है, लेकिन जिस मन को बैठना चाहिये वह हवा से बातें कर रहा है, कुतर्कों का जाल बुन रहा है, तरंग पर तरंग छायी है, तो आप बैठे क्यों हैं? समय क्यों नष्ट करते हैं? उस समय केवल ‘परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम्।’ (18/44)- जो महापुरुष अव्यक्त की स्थितिवाले हैं, अविनाशी तत्त्व में स्थित हैं उनकी तथा इस पथ पर अग्रसर अपने से उन्नत लोगों की सेवा में लग जाओ। इससे दूषित संस्कार शमन होते जायेंगे, साधना में प्रवेश दिलानेवाले संस्कार सब होते जायेंगे।

क्रमशः तामसी गुण न्यन होने पर राजसी गुणों की प्रधानता तथा सात्विक गुण के स्वल्प संचार के साथ साधक की क्षमता वैश्य श्रेणी की हो जाती है। उस समय वही साधक इन्द्रिय-संयम, आत्मिक सम्पत्ति का संग्रह स्वभावतः करने लगेगा। कर्म करते-करते उसी साधक में सात्विक गुणों का बाहुल्य हो जायेगा, राजसी गुण कम रह जायेंगे, तामसी गुण शान्त रहेंगे। उस समय वही साधक क्षत्रिय श्रेणी में प्रवेश पा लेगा।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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