यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 203

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय

तीसरे अध्याय में उन्होंने बताया कि इस यज्ञ द्वारा तुम देवताओं की वृद्धि करो, दैवी सम्पद् को बलवती बनाओ। ज्यों-ज्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद् की उन्नति होगी, त्यों-त्यों तुम्हारी उन्नति होगी। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परमश्रेय को प्राप्त हो जाओ। अन्त तक उन्नति करते जाने की यह अन्तःक्रिया है। इसी पर बल देते हुए श्रीकृष्ण कहते है।-मेरे अनुकूल बरतनेवाले लोग इस मनुष्य-शरीर में कर्मों की सिद्धि चाहते हुए दैवी सम्पद् को बलवती बनाते हैं, जिससे वह नैष्कम्र्य-सिद्धि शीघ्र होती है। वह असफल नहीं होती, सफल ही होती है।

शीघ्र का तात्पर्य? क्या कर्म में प्रवृत्त होते ही तत्क्षण यह परमसिद्धि मिल जाती है? श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, इस सोपान पर क्रमशः चढ़ने का विधान है। कोई छलांग भावातीत ध्यान-जैसा चमत्कार नहीं होता। इस पर देखें-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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