विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्यायतीसरे अध्याय में उन्होंने बताया कि इस यज्ञ द्वारा तुम देवताओं की वृद्धि करो, दैवी सम्पद् को बलवती बनाओ। ज्यों-ज्यों हृदय-देश में दैवी सम्पद् की उन्नति होगी, त्यों-त्यों तुम्हारी उन्नति होगी। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुए परमश्रेय को प्राप्त हो जाओ। अन्त तक उन्नति करते जाने की यह अन्तःक्रिया है। इसी पर बल देते हुए श्रीकृष्ण कहते है।-मेरे अनुकूल बरतनेवाले लोग इस मनुष्य-शरीर में कर्मों की सिद्धि चाहते हुए दैवी सम्पद् को बलवती बनाते हैं, जिससे वह नैष्कम्र्य-सिद्धि शीघ्र होती है। वह असफल नहीं होती, सफल ही होती है। शीघ्र का तात्पर्य? क्या कर्म में प्रवृत्त होते ही तत्क्षण यह परमसिद्धि मिल जाती है? श्रीकृष्ण कहते हैं-नहीं, इस सोपान पर क्रमशः चढ़ने का विधान है। कोई छलांग भावातीत ध्यान-जैसा चमत्कार नहीं होता। इस पर देखें-
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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