यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 2

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

संजय उवाच

दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत्।।2।।

उस समय राजा दुर्योधन ने व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा-

द्वैत का आचरण ही ‘द्रोणाचार्य’ है। जब जानकारी हो जाती है कि हम परमात्मा से अलग हो गये हैं (यही द्वैत का भान है), वहाँ उसकी प्राप्ति के लिये तड़प पैदा हो जाती है, तभी हम गुरु की तलाश में निकलते हैं। दोनों प्रवृत्तियों के बीच यही प्राथमिक गुरु है; यद्यपि बाद के सद्गुरु योगेश्वर श्री कृष्ण होंगे, जो योग की स्थिति वाले होंगे।

राजा दुर्योधन आचार्य के पास जाता है। मोह रूपी दुर्योधन। मोह सम्पूर्ण व्याधियों का मूल है, राजा है। दुर्योधन- दुर् अर्थात् दूषित, यो धन अर्थात् वह धन। आत्मिक सम्पत्ति ही स्थिर सम्पत्ति है। उसमें जो दोष उत्पन्न करता है, वह है मोह। यही प्रकृति की ओर खींचता है और वास्तविक जानकारी के लिये प्रेरणा भी प्रदान करता है। मोह है तभी तक पूछने का प्रश्न भी है, अन्यथा सभी पूर्ण ही हैं।

अतः व्यूह रचना युक्त पाण्डवों की सेना को देखकर अर्थात पुण्य से प्रवाहित सजातीय वृत्तियों को संगठित देख कर मोह रूपी दुर्योधन ने प्रथम गुरु द्रोण के पास जाकर यह कहा-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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