यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 199

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


बीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिताः।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः।।10।।

राग और विराग, दोनों से परे वीतराग तथा इसी प्रकार भय-अभय, क्रोध-अक्रोध दोनों से परे, अनन्य भाव से अर्थात अहंकाररहित मेरी शरण हुए बहुत से लोग ज्ञान-तप से पवित्र होकर मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। अब ऐसा होने लगा हो-ऐसी बात नहीं है, यह विधान सदैव रहा है। बहुत से पुरुष इसी प्रकार से मेरे स्वरूप को प्राप्त हो चुके हैं। किस प्रकार? जिन-जिन का हृदय अधर्म की वृद्धि देखकर परमात्मा के लिये ग्यालि से भर गया, उस स्थिति में मैं अपने स्वरूप को रचता हूँ। वे मेरे स्वरूप को प्राप्त होते हैं। जिसे योगेश्वर श्रीकृष्ण ने तत्त्वदर्शन कहा, उसे ही अब ‘ज्ञान’ कहते हैं। परमतत्त्व है परमात्मा, उसे प्रत्यक्ष दर्शन के साथ जानना ज्ञान है। ऐसी जानकारीवाले ज्ञानी मेरे स्वरूप को प्राप्त करते हैं। यहाँ यह प्रश्न पूरा हो गया। अब वे योग्यता के आधार पर भजनेवालों का श्रेणी-विभाजन करते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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