यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 197

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


जब तत्त्वदर्शी ही भगवान का जन्म और कार्य देख पाता है तो लोग लाखों की संख्या में भीड़ लगाये खड़े हैं कि कहीं अवतार होगा तो दर्शन करेंगे? क्या आप तत्त्वदर्शी हैं? महात्मा-वेष में आज भी विविध तरीकों से, मुख्यतः महात्मा-वेष की आड़ में बहुत से लोग प्रचार करते फिरते हैं कि वे अवतार हैं या उनके दलाल प्रचार कर देते हैं। लोग भेड़ की तरह अवतार को देखने टूट पड़ते हैं; किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं कि केवल तत्त्वदर्शी ही देख पाता है। अब तत्त्वदर्शी किसे कहते हैं?

अध्याय 2 में सत्-असत् का निर्णय देते हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण ने बताया- अर्जुन! असत् वस्तु का अस्तित्व नहीं है और सत् का तीनों कालों में कभी अभाव नहीं है। तो क्या ऐसा कहते हैं? उन्होंने बताया-“नहीं, तत्त्वदर्शियों ने इसे देखा।” न किसी भाषाविद् ने देखा, न किसी समृद्धिशाली ने देखा। यहाँ पुनः बद देते हैं कि मेरा आविर्भाव तो होता है लेकिन उसे तत्त्वदर्शी ही देख पाता है। तत्त्वदर्शी एक प्रश्न है। ऐसा कुछ नहीं कि पाँच तत्त्व हैं, पचीस तत्त्व हैं-इनकी गणना सीख ली और हो गये तत्त्वदर्शी। श्रीकृष्ण ने आगे बताया कि आत्मा ही परमतत्त्व है। आत्मा परम से संयुक्त होकर परमात्मा हो जाता है। आत्मसाक्षात्कार करनेवाला ही इस आविर्भाव को समझ पाता है। सिद्ध है कि अवतार किसी विरही अनुरागी के हृदय में होता है। आरम्भ में उसे वह समझ नहीं पाता कि हमें कौन संकेत देता है? कौन मार्गदर्शन करता है? किन्तु परमतत्त्व परमात्मा के दर्शन के साथ ही वह देख पाता है, समझ पाता है और फिर शरीर को त्यागकर पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होता।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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