विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दचतुर्थ अध्याय
जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः। अर्जुन! मेरा वह जन्म अर्थात् ग्लानि के साथ स्वरूप की रचना तथा मेरा कर्म अर्थात् दुष्कृतियों के कारणों का विनाश, साध्य वस्तु को दिलानेवाली क्षमताओं का निर्दोष संचार, धर्म की स्थिरता, यह कर्म और जन्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है लौकिक नहीं है। इन चर्मचक्षुओं से उसे देखा नहीं जा सकता, मन और बुद्धि से उसे मापा नहीं जा सकता। जब इतना गूढ़ है तो उसे देखता कौन है? केवल ‘यो वेत्ति तत्त्वतः’-तत्त्वदर्शी ही मेरे इस जन्म और कर्म को देखता है और मेरा साक्षात् करके वह पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता, बल्कि मुझे प्राप्त होता है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
सम्बंधित लेख
अध्याय | अध्याय का नाम | पृष्ठ सं. |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज