यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 196

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वतः।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन।।9।।

अर्जुन! मेरा वह जन्म अर्थात् ग्लानि के साथ स्वरूप की रचना तथा मेरा कर्म अर्थात् दुष्कृतियों के कारणों का विनाश, साध्य वस्तु को दिलानेवाली क्षमताओं का निर्दोष संचार, धर्म की स्थिरता, यह कर्म और जन्म दिव्य अर्थात् अलौकिक है लौकिक नहीं है। इन चर्मचक्षुओं से उसे देखा नहीं जा सकता, मन और बुद्धि से उसे मापा नहीं जा सकता। जब इतना गूढ़ है तो उसे देखता कौन है? केवल ‘यो वेत्ति तत्त्वतः’-तत्त्वदर्शी ही मेरे इस जन्म और कर्म को देखता है और मेरा साक्षात् करके वह पुनर्जन्म को नहीं प्राप्त होता, बल्कि मुझे प्राप्त होता है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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