यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 183

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

चतुर्थ अध्याय


यह योग अविनाशी है। श्रीकृष्ण ने कहा कि इसमें आरम्भ का नाश नहीं होता। इस योग का आरम्भ भर कर दें तो यह पूर्णत्व दिलाकर ही शान्त होता है। शरीर का कल्प औषधियों द्वारा होता है; किन्तु आत्मा का भजन से होता है। भजन का आरम्भ ही आत्म-कल्प का आदि है। यह साधन-भजन भी किसी महापुरुष की ही देन है। मोहनिशा में अचेत आदिम मानव, जिसमें भजन का कोई संस्कार नहीं है, योग के विषय में जिसने कभी सोचा तक नहीं, ऐसा मनुष्य किसी महापुरुष को देखता है तो उनके दर्शनमात्र से, उनकी वाणी से, टूटी-फूटी सेवा और सान्निध्य से योग के संस्कार उसमें संचारित हो जाते हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी इसी को कहते हैं-‘जे चितए प्रभु जिन्ह प्रभु हेरे।’, ‘ते सब भए परम पद जोगू।’[1]


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

  1. रामचरितमानस, 2/216/1-2

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः