यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 180

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


सम्पूर्ण गीता पर दृष्टिपात करें तो अध्याय दो में कहा कि शरीर नाशवान् है, अतः युद्ध कर। गीता में युद्ध का सही ठोस कारण बताया गया। आगे ज्ञानयोग के सन्दर्भ में क्षत्रिय के लिये युद्ध ही कल्याण का एकमात्र साधन बताया और कहा कि यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोग के विषय में कही गयी। कौन-सी बुद्धि? यही कि हार-जीत दोनों दृष्टियों में लाभ ही है, ऐसा समझकर युद्ध कर। फिर अध्याय चार में कहा कि योग में स्थित रहकर हृदय में स्थित अपने इस संशय को ज्ञानरूपी तलवार द्वारा काट। वह तलवार योग में है। अध्याय पाँच से दस तक युद्ध की चर्चा तक नहीं है। ग्यारहवें अध्याय में केवल इतना कहा कि ये शत्रु मेरे द्वारा पहले ही मारे गये हैं, तू निमित्त मात्र होकर खड़ा भर हो जा। यश को प्राप्त कर। ये तुम्हारे बिना भी मारे हुए हैं, प्रेरक करा लेगा। तू इन मुर्दों को ही मार।

अध्याय पन्द्रह में संसार सुविरूढ़ मूलवाला पीपल वृक्ष-जैसा कहा गया, जिसे असंगतारूपी शस्त्र द्वारा काटकर उस परमपद को खोजने का निर्देश मिला। आगे के अध्यायों में युद्ध का उल्लेख नहीं है। हाँ, अध्याय सोलह में असुरों का चित्रण अवश्य है, जो नरकगामी हैं। अध्याय तीन में ही युद्ध का विशद चित्रण है। श्लोक 30 से श्लोक 43 तक युद्ध का स्वरूप, उसकी अनिवार्यता, युद्ध न करनेवालों का विनाश, युद्ध में मारे जानेवाले शत्रुओं के नाम, उन्हें मारने के लिये अपनी शक्ति का आव्हान् और निश्चय ही उन्हें काटकर फेंकने पर बल दिया।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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