विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
अर्जुन उवाच हे श्रीकृष्ण! फिर यह पुरुष बरबस घसीटकर लगाये हुए के सदृश न चाहता हुआ भी किसकी प्रेरणा से पाप का आचरण करता है? आपके मत के अनुसार क्यों नहीं चल पाता? इस पर योगेश्वर श्रीकृष्ण कहते हैं- श्रीभगवानुवाच अर्जुन! रजोगुण से उत्पन्न यह काम और यह क्रोध अग्नि के समान भोग भोगने से कभी न तृप्त होनेवाले बड़े पापी हैं। काम-क्रोध राग-द्वेष के ही पूरक हैं। अभी मैंने जिसकी चर्चा की है, इस विषय में तू उनको ही शत्रु जान। अब इनका प्रभाव बताते हैं- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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