विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठ्तिात्। एक साधक दस वर्ष से साधना में लगा हुआ है और दूसरा आज साधना में प्रवेश ले रहा है। दोनों की क्षमता एक-जैसी नहीं होगी। प्रारम्भिक साधक यदि उसकी नकल करता है तो नष्ट हो जायेगा। इसी पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छी प्रकार आचरण् किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अधिक उत्तम है। स्वभाव से उत्पन् कर्म में प्रवृत्त होने की क्षमता स्वधर्म है। अपनी क्षमता के अनुसार कर्म में प्रवृत होने से साधक एक-न-एक दिन पार पा जाता है। अतः स्वधर्माचरण में मरना भी परम कल्याणकारी है। जहाँ से साधन छूटेगा, शरीर मिलने पर वहीं से पुनः प्रारम्भ होगा। आत्मा तो मरता नहीं, शरीर (वस्त्र) बदलने से आपके बुद्धि, विचार बदल ते नहीं जाते? आगेवालों की तरह स्वांग बनाने से साधक भय को प्राप्त होगा। भय प्रकृति में होता है, परमात्मा में नहीं। प्रकृति का आवरण और घना हो उठेगा। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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