यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 168

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठ्तिात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः।।35।।

एक साधक दस वर्ष से साधना में लगा हुआ है और दूसरा आज साधना में प्रवेश ले रहा है। दोनों की क्षमता एक-जैसी नहीं होगी। प्रारम्भिक साधक यदि उसकी नकल करता है तो नष्ट हो जायेगा। इसी पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि अच्छी प्रकार आचरण् किये हुए दूसरे के धर्म से गुणरहित भी अपना धर्म अधिक उत्तम है। स्वभाव से उत्पन् कर्म में प्रवृत्त होने की क्षमता स्वधर्म है। अपनी क्षमता के अनुसार कर्म में प्रवृत होने से साधक एक-न-एक दिन पार पा जाता है। अतः स्वधर्माचरण में मरना भी परम कल्याणकारी है। जहाँ से साधन छूटेगा, शरीर मिलने पर वहीं से पुनः प्रारम्भ होगा। आत्मा तो मरता नहीं, शरीर (वस्त्र) बदलने से आपके बुद्धि, विचार बदल ते नहीं जाते? आगेवालों की तरह स्वांग बनाने से साधक भय को प्राप्त होगा। भय प्रकृति में होता है, परमात्मा में नहीं। प्रकृति का आवरण और घना हो उठेगा।

Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः