यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द
तृतीय अध्याय
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम्।
सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।।32।।
जो दोषदृष्टि वाले ‘अचेतसः’-मोहनिशा में अचेत लोग मेरे इस मत के अनुसार नहीं बरतते अर्थात् ध्यानस्थ होकर आशा, ममता और सन्तापरहित होकर सवर्मण के साथ युद्ध नहीं करते, ‘सर्वज्ञानविमूढान्’-ज्ञान-पथ में सर्वथा मोहित उन लोगों को तू कल्याण से भ्रष्ट हुआ ही जान। जब यही सही है तो लोग करते क्यों नहीं? इस पर कहते हैं-
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेज्र्ञानवानपि।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति।।33।।
सभी प्राणी अपनी प्रकृति को प्राप्त होते हैं। अपने स्वभाव से परवश होकर कर्म में भाग लेते हैं। प्रत्यक्षदर्शी ज्ञानी भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। प्राणी अपने कर्मों में बरतते हैं और ज्ञानी अपने स्वरूप में जैसा जिसकी प्रकृति का दबाव है, वैसा ही कार्य करता है। यह स्वयंसिद्ध है। इसमें निराकरण कोई क्या करेगा? यही कारण है कि सभी लोग मेरे मत के अनुसार कर्म में प्रवृत्त नहीं हो पाते। वे आशा, ममता, संताप का, दूसरे शब्दों में राग-द्वेष का त्याग नहीं कर पाते, जिससे कर्म का सम्यक् आचरण नहीं हो पाता। इसी को और स्पष्ट करते हैं और दूसरा कारण बताते हैं-
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