यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 162

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


अपनी शक्ति और स्थिति का आकलन करके कर्म में प्रवृत्त होने वाले ज्ञानमार्गी साधकों को चाहिये कि कर्म को गुणों की देन मानें, अपने का कर्ता मानकर अहंकारी न बन जायँ, निर्मल गुणों के प्राप्त होने पर भी उनमें आसक्त न हों। किन्तु निष्काम कर्मयोगी को कर्म और गुणों के विश्लेषण में समय देने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसे तो बस समर्पण के साथ कर्म करते जाना है। कौन गुण आ-जा रहा है, यह देखना इष्ट की जिम्मेदारी हो जाती है।

गुणों का परिवर्तन और क्रम-क्रम से उत्थान वह इष्ट की ही देन मानता है और कर्म होने को भी उन्हीं की देन मानता है। अतः कर्तापन का अहंकार या गुणों में आसक्ति होने की समस्या उसके लिये नहीं रहती, जबकि अनवरत लगा रहता है। इसी पर और साथ ही युद्ध का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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