विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायकाश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः। कायारूपी काशी। पुरुष जब सब ओर से मन सहित इन्द्रियों को समेट कर काया में ही केन्द्रित करता है, तो ‘परमेष्वासः’- परमईश में वास का अधिकारी हो जाता है। परम ईश में वास दिलाने में सक्षम काया ही काशी है। काया में ही परम ईश का निवास है। ‘परमेष्वास’ का अर्थ श्रेष्ठ धनुष वाला नहीं बल्कि परम+ईश+वास है। शिखा-सूत्र का त्याग ही ‘शिखण्डी’ है। आजकल लोग सिर के बाल कटा लेते हैं और सूत्र के नाम पर गले की जनेऊ हटा लेते हैं, अग्नि जलाना छोड़ देते हैं, हो गया संन्यास उनका। नहीं, वस्तुतः शिखा लक्ष्य का प्रतीक है, जिसे आपको पाना है और सूत्र है संस्कारों का। जब तक आगे परमात्मा को पाना शेष है, पीछे संस्कारों का सूत्रपात लगा हुआ है, तब तक त्याग कैसा? संन्यास कैसा? अभी तो चलने वाले पथिक हैं। जब प्राप्तव्य प्राप्त हो जाय, पीछे लगे हुए संस्कारों की डोर कट जाय, ऐसी अवस्था में भ्रम सर्वथा शान्त हो जाता है। इसलिये शिखण्डी ही भ्रम रूपी भीष्म का विनाश करता है। शिखण्डी चिन्तन-पथ की विशिष्ट योग्यता है, महारथी है। ‘धृष्टद्युम्नः’ - दृढ़ और अचल मन तथा ‘विराटः’ - सर्वत्र विराट् ईश्वर का प्रसार देखने की क्षमता इत्यादि दैवी सम्पद् के प्रमुख गुण हैं। सात्त्विकता ही सात्यकि है। सत्य के चिन्तन की प्रवृत्ति अर्थात् सात्त्विकता यदि बनी है तो कभी गिरावट नहीं आने पायेगी। इस संघर्ष में पराजित नहीं होने देगी।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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