विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसंगिनाम्। ज्ञानी पुरुषों को चाहिये कि कर्मों में आसिक्तवाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम न पैदा करें अर्थात् स्वरूपस्थ महापुरुष ध्यान दें कि उनके किसी आचरण से पीछेवालों के मन में कर्म के प्रति अश्रद्धा न उत्पन्न हो जाय। परमात्मतत्त्व से संयुक्त महापुरुष को भी चाहिये कि स्वयं भली प्रकार नियत कर्म करता हुआ उनसे करावे। यही कारण था कि ‘पूज्य महाराज जी’ वृद्धावस्था में भी रात के दो बजे ही उठकर बैठ जायँ, खाँसने लगें। तीन बजे बोलने लगें- “उठो मिट्टी के पुतलो।” सब उठकर चिन्तन में लग जायँ, तो स्वयं थोड़ा लेट जायँ। कुछ देर बाद फिर उठकर बैठ जायँ। कहें- “तुम लोग सोचते हो कि महाराज सो रहे हैं; किन्तु मैं सोता नहीं, श्वास में लगा हूँ। वृद्धावस्था का शरीर है, बैठने में कष्ट होता है इसी से मैं पड़ा रहता हूँ, लेकिन तुम्हें तो स्थिर और सीधे बैठकर चिन्तन में लगना है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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