यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 148

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।

इस संसार में उस पुरुष का कर्म किये जाने से कोई लाभ नहीं है और न छोड़ देने से कोई हानि है, जबकि पहले आवश्यक था। उसका सम्पूर्ण प्राणियों में कोई स्वार्थ-सम्बन्ध नहीं रह जाता। आत्मा ही तो शाश्वत, सनातन, अव्यक्त, अपरिवर्तनशील और अक्षय है। जब उसी को पा लिया, उसी से सन्तुष्ट, उसी से तृप्त, उसी में ओतप्रोत और स्थित है, आगे कोई सत्ता ही नहीं तो किसको खोजे? मिलेगा क्या? उस पुरुष के लिये कर्म छोड़ देने से कोई हानि भी नहीं है; क्योंकि विकार जिस पर अंकित होते हैं, वह चित्त ही न रहा। उसका सम्पूर्ण भूतों में, बाह्य जगत् और आन्तरिक संकल्पों की परत में लेशमात्र भी अर्थ नहीं रहता। सबसे बड़ा अर्थ तो था परमात्मा, जब वही उपलब्ध है तो दूसरों से उसका क्या प्रयोजन होगा?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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