विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्यायनैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। इस संसार में उस पुरुष का कर्म किये जाने से कोई लाभ नहीं है और न छोड़ देने से कोई हानि है, जबकि पहले आवश्यक था। उसका सम्पूर्ण प्राणियों में कोई स्वार्थ-सम्बन्ध नहीं रह जाता। आत्मा ही तो शाश्वत, सनातन, अव्यक्त, अपरिवर्तनशील और अक्षय है। जब उसी को पा लिया, उसी से सन्तुष्ट, उसी से तृप्त, उसी में ओतप्रोत और स्थित है, आगे कोई सत्ता ही नहीं तो किसको खोजे? मिलेगा क्या? उस पुरुष के लिये कर्म छोड़ देने से कोई हानि भी नहीं है; क्योंकि विकार जिस पर अंकित होते हैं, वह चित्त ही न रहा। उसका सम्पूर्ण भूतों में, बाह्य जगत् और आन्तरिक संकल्पों की परत में लेशमात्र भी अर्थ नहीं रहता। सबसे बड़ा अर्थ तो था परमात्मा, जब वही उपलब्ध है तो दूसरों से उसका क्या प्रयोजन होगा? |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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