यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 141

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।12।।

यज्ञ द्वारा संवर्धित देवता (दैवी सम्पद्) आपको ‘इष्टान् भोगान् हि दास्यनते’-इष्ट अर्थात् आराध्य-सम्बन्धी भोगों को देंगे, अन्य कुछ नहीं। ‘तैः दत्तान्’- वे ही एकमात्र देनेवाले हैं। इष्ट को पाने का अन्य कोई विकल्प नहीं है। इन दैवी गुणों को बिना बढ़ाये जो इस स्थिति का भोग करता है वह निश्चय ही चोर है। जब उसने पाया ही नहीं तो भोगेगा क्या? किन्तु कहता अवश्य है कि हम तो पूर्ण हैं, तत्त्वदर्शी हैं। ऐसी डींग मारनेवाला इस पथ से मुँह छिपानेवाला है। वह निश्चय ही चोर है, न कि प्राप्तिवाला। किन्तु पानेवाले क्या पाते हैं?-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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