यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 138

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


भजन की वास्तविक क्रिया प्रारम्भ हो जाने पर बुद्धि का उत्तरोत्तर उत्थान होता है। प्रारम्भ में वह बुद्धि ब्रह्मविद्या से संयुक्त होने के कारण ‘ब्रह्मविद्’ कही जाती है। क्रमशः विकारों का शमन होने पर, ब्रह्मविद्या में श्रेष्ठ होने पर वह ‘ब्रह्मविदुर’ कही जाती है। उत्थान और सूक्ष्म हो जाने पर बुद्धि की अवस्था विकसित हो जाती है। वह ‘ब्रह्मविद्वरीयान्’ कहलाती है। उस असस्था में ब्रह्मविद्वेत्ता पुरुष दूसरों को भी उत्थान मार्ग पर लाने का अधिकार प्राप्त कर लेता है। बुद्धि की पराकाष्ठा है-‘ब्रह्मविद्वरिष्ठ’ अर्थात् ब्रह्मविद् की वह अवस्था, जिसमें इष्ट प्रवाहित है।

ऐसी स्थितिवाले महापुरुष प्रजा के मूल उद्गम परमात्मा में प्रविष्ठ और स्थित रहते हैं। ऐसे महापुरुषों की बुद्धि मात्र यंत्र है। वे ही प्रजापति कहलाते हैं। वे प्रकृति के द्वन्द्व का विश्लेषण कर ‘आराधना-क्रिया’ की रचना करते हैं। यज्ञ के अनुरूप संस्कारों का देना ही प्रजा की रचना है। इससे पूर्व समाज अचेत एवं अव्यवस्थित रहता है। सृष्टि अनादि है। संस्कार पहले से ही हैं; किन्तु अस्त-व्यस्त एवं विकृत हैं। यज्ञ के अनुरूप उन्हें ढालना ही रचना या सजाना है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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