यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 136

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


अब प्रश्न उठता है कि निर्धारित कर्म क्या है, जिसे हम करें? तब बताया कि यज्ञ को कार्यरूप देना कर्म है। अब प्रश्न उठता है कि वह यज्ञ क्या है? जहाँ यज्ञ की उत्पत्ति, विशेषता बताकर शानत हो जायेंगे और आगे अध्याय चार में यज्ञ का निखरा हुआ रूप मिलेगा, जिसे करना कर्म है।

कर्म की यह परिभाषा गीता को समझने की कुंजी है। यज्ञ के अतिरिक्त दुनिया में लोग कुछ-न-कुछ करते ही रहते हैं। कोई खेती करता है तो कोई व्यापार, कोई पदासीन है तो कोई सेवक, कोई अपने को बुद्धिजीवी कहता है तो कोई श्रमजीव, कोई समाज-सेवा को कर्म मानता है तो कोई देश-सेवा को और इन्हीं कर्मों में लोग सकाम और निष्काम कर्म की भूमिका भी बनाये पड़े हैं। किन्तु श्रीकृष्ण कहते हैं, ये कर्म नहीं हैं। ‘अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’- यज्ञ की प्रक्रिया के सिवाय जो कुछ भी किया जाता है वह इसी लोक का बन्धनकारी कर्म है, न कि मोक्षद कर्म। वस्तुतः यज्ञ कि प्रक्रिया ही कर्म है। अब यज्ञ न बताकर पहले यह बतो हैं कि यज्ञ आया कहाँ से?-


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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