विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याययज्ञार्थात्कर्मणोऽन्य लोकोऽयं कर्मबन्धनः। अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। वह हरकत कर्म है, जिससे यज्ञ पूर्ण होता है। सिद्ध है कि कर्म एक निर्धारित प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त जो कर्म होते हैं, क्या वे कर्म नहीं हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, वे कर्म नहीं हैं। ‘अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’-इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त दुनिया में जो कुछ भी किया जाता है, सारा जगत् जिसमें रात-दिन व्यस्त है वह इसी लोक का एक बन्धन है, न कि कर्म। कर्म तो ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’- अशुभ अर्थात संसार-बन्धन से छुटकारा दिलाने वाला है। मात्र यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। वह हरकत कर्म है, जिससे यज्ञ पूरा होता है। अतः अर्जुन! उस यज्ञ की पूर्ति के लिए संगदोष से अलग रहकर भली प्रकार कर्म का आचरण कर। संगदोष से अलग हुए बिना यह कर्म होता ही नहीं।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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