यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 134

Prev.png

यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्य लोकोऽयं कर्मबन्धनः।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ।।9।।

अर्जुन! यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। वह हरकत कर्म है, जिससे यज्ञ पूर्ण होता है। सिद्ध है कि कर्म एक निर्धारित प्रक्रिया है। इसके अतिरिक्त जो कर्म होते हैं, क्या वे कर्म नहीं हैं? श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं, वे कर्म नहीं हैं। ‘अन्यत्र लोकोऽयं कर्मबन्धनः’-इस यज्ञ की प्रक्रिया के अतिरिक्त दुनिया में जो कुछ भी किया जाता है, सारा जगत् जिसमें रात-दिन व्यस्त है वह इसी लोक का एक बन्धन है, न कि कर्म। कर्म तो ‘मोक्ष्यसेऽशुभात्’- अशुभ अर्थात संसार-बन्धन से छुटकारा दिलाने वाला है। मात्र यज्ञ की प्रक्रिया ही कर्म है। वह हरकत कर्म है, जिससे यज्ञ पूरा होता है। अतः अर्जुन! उस यज्ञ की पूर्ति के लिए संगदोष से अलग रहकर भली प्रकार कर्म का आचरण कर। संगदोष से अलग हुए बिना यह कर्म होता ही नहीं।


Next.png

टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः