यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 132

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः।।8।।

अर्जुन! तू निर्धारित किये हुए कर्म को कर। अर्थात् कर्म तो बहुत से हैं, उनमें से कोई एक चुना हुआ है; उसी नियत कर्म को कर। कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही श्रेष्ठ है। इसलिये कि करते रहोगे, थोड़ी भी दूरी तय कर लोगे तो जैसा पीछे बता आये हैं- महान् जन्म-मरण के भय से उद्वार करनेवाला है, इसलिये श्रेष्ठ है। कर्म न करने से तेरी शरीर-यात्रा भी सिद्ध नहीं होगी। शरीर-यात्रा का अर्थ लोग कहते हैं-‘शरीर-निर्वाह’। कैसा शरीर-निर्वाह? क्या आप शरीर है?

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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