विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दप्रथम अध्यायततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। तदनन्तर अनेक शंख, नगाड़े, ढोल और नरसिंघादि बाजे एक साथ ही बजे। उनका शब्द भी बड़ा भयंकर हुआ। भय का संचार करने के अतिरिक्त कौरवों की कोई घोषणा नहीं है। बहिर्मुखी विजातीय प्रवृत्ति सफल होने पर मोहमयी बन्धन और घना कर देती है। अब पुण्यमयी प्रवृत्तियों की ओर से घोषणाएँ हुईं, जिनमें पहली घोषणा योगेश्वर श्रीकृष्ण की है- ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ। इसके उपरान्त श्वेत घोड़ों से युक्त (जिनमें लेश मात्र कालिमा, दोष नहीं है - श्वेत सात्त्विक, निर्मलता का प्रतीक है) ‘महति स्यन्दने’ - महान् रथ पर बैठे हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये। अलौकिक का अर्थ है, लोकों से परे। मृत्यु लोक, देवलोक, ब्रह्मलोक, जहाँ तक जन्म मरण का भय है उन समस्त लोकों से परे पारलौकिक, पारमार्थिक स्थिति प्रदान करने की घोषणा योगेश्वर श्री कृष्ण की है। सोने, चाँदी या काठ का रथ नहीं; रथ अलौकिक, शंख अलौकिक, अतः घोषणा भी अलौकिक ही है। लोकों से परे एकमात्र ब्रह्म है, सीधा उससे सम्पर्क स्थापित कराने की घोषणा है। वे कैसे यह स्थिति प्रदान करेंगे?- |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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