यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 13

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

प्रथम अध्याय

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः।
सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्।।13।।

तदनन्तर अनेक शंख, नगाड़े, ढोल और नरसिंघादि बाजे एक साथ ही बजे। उनका शब्द भी बड़ा भयंकर हुआ। भय का संचार करने के अतिरिक्त कौरवों की कोई घोषणा नहीं है। बहिर्मुखी विजातीय प्रवृत्ति सफल होने पर मोहमयी बन्धन और घना कर देती है।

अब पुण्यमयी प्रवृत्तियों की ओर से घोषणाएँ हुईं, जिनमें पहली घोषणा योगेश्वर श्रीकृष्ण की है-

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ।।14।।

इसके उपरान्त श्वेत घोड़ों से युक्त (जिनमें लेश मात्र कालिमा, दोष नहीं है - श्वेत सात्त्विक, निर्मलता का प्रतीक है) ‘महति स्यन्दने’ - महान् रथ पर बैठे हुए योगेश्वर श्रीकृष्ण और अर्जुन ने भी अलौकिक शंख बजाये। अलौकिक का अर्थ है, लोकों से परे। मृत्यु लोक, देवलोक, ब्रह्मलोक, जहाँ तक जन्म मरण का भय है उन समस्त लोकों से परे पारलौकिक, पारमार्थिक स्थिति प्रदान करने की घोषणा योगेश्वर श्री कृष्ण की है। सोने, चाँदी या काठ का रथ नहीं; रथ अलौकिक, शंख अलौकिक, अतः घोषणा भी अलौकिक ही है। लोकों से परे एकमात्र ब्रह्म है, सीधा उससे सम्पर्क स्थापित कराने की घोषणा है। वे कैसे यह स्थिति प्रदान करेंगे?-

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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