यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 126

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

तृतीय अध्याय


व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।2।।

आप इन मिले हुएसे वचनों से मेरी बुद्धि-मोहित-सी करते हैं। आप तो मेरी बुद्धि का मोह दूर करने में प्रवृत्त हुए हैं। अतः इनमें से एक निश्यच करके कहिये, जिसमें मैं ‘श्रेय’- परमकल्याण मोक्ष को प्राप्त हो जाऊँ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा-

श्रीभगवानुवाच
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मायानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्।।3।।

निष्पाप अर्जुन! इस संसार में सत्य-शोध की दो धाराएँ मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं। पहले का तात्पर्य कभी सत्ययुग या त्रेता में नहीं, बल्कि अभी जिसे दूसरे अध्याय में कह आये हैं। ज्ञानियों के लिये ज्ञानमार्ग और योगियों के लिये निष्काम कर्ममार्ग बताया गया। दोनों ही मार्गों के अनुसार कर्म तो करना ही पड़ेगा। कर्म अनिवार्य है।

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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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