विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दतृतीय अध्याय
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे। आप इन मिले हुएसे वचनों से मेरी बुद्धि-मोहित-सी करते हैं। आप तो मेरी बुद्धि का मोह दूर करने में प्रवृत्त हुए हैं। अतः इनमें से एक निश्यच करके कहिये, जिसमें मैं ‘श्रेय’- परमकल्याण मोक्ष को प्राप्त हो जाऊँ। इस पर श्रीकृष्ण ने कहा- श्रीभगवानुवाच निष्पाप अर्जुन! इस संसार में सत्य-शोध की दो धाराएँ मेरे द्वारा पहले कही गयी हैं। पहले का तात्पर्य कभी सत्ययुग या त्रेता में नहीं, बल्कि अभी जिसे दूसरे अध्याय में कह आये हैं। ज्ञानियों के लिये ज्ञानमार्ग और योगियों के लिये निष्काम कर्ममार्ग बताया गया। दोनों ही मार्गों के अनुसार कर्म तो करना ही पड़ेगा। कर्म अनिवार्य है। |
टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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