यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 121

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय


निष्कर्ष-

प्रायः कुछ लोग कहते हैं कि दूसरे अध्याय में गीता पूर्ण हो गयी; किन्तु यदि केवल कर्म का नाम मात्र लेने से कर्म पूरा हो जाता हो, तब तो गीता का समापन माना जा सकता है। इस अध्याय में योगेश्वर श्रीकृष्ण ने यही बताया कि- अर्जुन! निष्काम कर्मयोग के विषय में सुन, जिसे जानकर तू संसार बन्धन से छूट जायेगा। कर्म करने में तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं। कर्म करने में तेरी अश्रद्धा भी न हो। निरन्तर करने के लिये तत्पर हो जा। इसके परिणाम में तू ‘परं दृष्ट्वा’[1]- परमपुरुष का दर्शन कर स्थितप्रज्ञ बनेगा, परमशान्ति पायेगा। किन्तु यह नहीं बताया कि ‘कर्म’ है क्या?

यह ‘सांख्ययोग’ नामक अध्याय नहीं है। यह नाम शास्त्रकार का नहीं, अपितु टीकाकारों की देन है। वे अपनी बुद्धि के अनुसार ही ग्रहण करते हैं तो आश्चर्य क्या है?

इस अध्याय में कर्म की गरिमा, उसे करने में बरती जाने वाली सावधानी और स्थितप्रज्ञ के लक्षण बताकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन के मन में कर्म के प्रति उत्कण्ठा जागृत की है, उसे कुछ प्रश्न दिये हैं। आत्मा शाश्वत है, सनातन है, उसे जानकर तत्त्वदर्शी बनो। उसकी प्राप्ति के दो साधन हैं- ज्ञानयोग और निष्काम कर्मयोग।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

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यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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