विषय सूचीयथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्दद्वितीय अध्याययह आसक्ति ‘परं दृष्ट्वा’- परमात्म का साक्षात्कार करने के बाद ही निवृत्त होती है, इसके पूर्व नहीं।‘पूज्य महाराज जी’ इस सम्बन्ध में अपनी एक घटना बताया करते थे। गृहत्याग से पूर्व उन्हें तीन बार आकाशवाणी हुई थी। हमने पूछा-“महाराज जी! आपको आकाशवाणी क्यों हुई, हम लोगों को तो नहीं हुई?” तब इस पर महाराज जी ने कहा- ‘हो! ई शंका मोहूं के भई रही।’ अर्थात् यह सन्देह मुझे भी हुआ था। तब अनुभव में आया कि मैं सात जन्म से लगातार साधु हूँ। चार जन्म तो केवल साधुओं सा वेश बनाये, तिलक लगाये, कहीं विभूति पोते, कहीं कमण्डल लिये विचरण कर रहा हूँ। योगक्रिया की जानकारी नहीं थी। लेकिन पिछले तीन जन्म से बढ़िया साधु हूँ, जैसा होना चाहिये। मुझमें योगक्रिया जागृत थी। पिछले जन्म में पार लग चला था, निवृत्ति हो चली थी; किन्तु दो इच्छाएँ रह गयी थीं-एक स्त्री और दूसरी गाँजा। अन्तर्मन में इच्छाएँ थीं, किन्तु बाहर से हमने शरीर को दृढ़ रखा। मन में वासना लगी थी इसलिये जन्म लेना पड़ा। जन्म लेते ही भगवान ने थोड़े ही समय में सब दिखा-सुनाकर निवृत्ति दिला दी, दो-तीन चटकना दिया और साधु बना दिया।
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टीका-टिप्पणी और संदर्भ
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