यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द पृ. 107

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यथार्थ गीता -स्वामी अड़गड़ानन्द

द्वितीय अध्याय

यह आसक्ति ‘परं दृष्ट्वा’- परमात्म का साक्षात्कार करने के बाद ही निवृत्त होती है, इसके पूर्व नहीं।‘पूज्य महाराज जी’ इस सम्बन्ध में अपनी एक घटना बताया करते थे। गृहत्याग से पूर्व उन्हें तीन बार आकाशवाणी हुई थी। हमने पूछा-“महाराज जी! आपको आकाशवाणी क्यों हुई, हम लोगों को तो नहीं हुई?” तब इस पर महाराज जी ने कहा- ‘हो! ई शंका मोहूं के भई रही।’

अर्थात् यह सन्देह मुझे भी हुआ था। तब अनुभव में आया कि मैं सात जन्म से लगातार साधु हूँ। चार जन्म तो केवल साधुओं सा वेश बनाये, तिलक लगाये, कहीं विभूति पोते, कहीं कमण्डल लिये विचरण कर रहा हूँ। योगक्रिया की जानकारी नहीं थी। लेकिन पिछले तीन जन्म से बढ़िया साधु हूँ, जैसा होना चाहिये। मुझमें योगक्रिया जागृत थी। पिछले जन्म में पार लग चला था, निवृत्ति हो चली थी; किन्तु दो इच्छाएँ रह गयी थीं-एक स्त्री और दूसरी गाँजा। अन्तर्मन में इच्छाएँ थीं, किन्तु बाहर से हमने शरीर को दृढ़ रखा। मन में वासना लगी थी इसलिये जन्म लेना पड़ा। जन्म लेते ही भगवान ने थोड़े ही समय में सब दिखा-सुनाकर निवृत्ति दिला दी, दो-तीन चटकना दिया और साधु बना दिया।


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टीका-टिप्पणी और संदर्भ

सम्बंधित लेख

यथार्थ गीता -अड़गड़ानन्द
अध्याय अध्याय का नाम पृष्ठ सं.
प्राक्कथन
1. संशय-विषाद योग 1
2. कर्म जिज्ञासा 37
3. शत्रु विनाश-प्रेरणा 124
4. यज्ञ कर्म स्पष्टीकरण 182
5. यज्ञ भोक्ता महापुरुषस्थ महेश्वर 253
6. अभ्यासयोग 287
7. समग्र जानकारी 345
8. अक्षर ब्रह्मयोग 380
9. राजविद्या जागृति 421
10. विभूति वर्णन 473
11. विश्वरूप-दर्शन योग 520
12. भक्तियोग 576
13. क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ विभाग योग 599
14. गुणत्रय विभाग योग 631
15. पुरुषोत्तम योग 658
16. दैवासुर सम्पद्‌ विभाग योग 684
17. ॐ तत्सत्‌ व श्रद्धात्रय विभाग योग 714
18. संन्यास योग 746
उपशम 836
अंतिम पृष्ठ 871

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