मोहन बदन बिलोकि थकित भए, माई री ये लोचन मेरे।
मिले जाइ अकुलाइ अगमने, कहा भयौ जो घूँघट घेरे।।
लोकलाज कुलकानि छाँड़ि कै, बरबस चपल चपरि भए नेरे।
काहै बादिहिं बकति बावरी, मानत कौन मते अब तेरे।।
ललित त्रिभंगी-तनु-छवि अटके, नाहिंन फिरत कितौऊं फेरे।
'सूर' स्याम सन्मुख रति मानत, गए मग बिसरि दाहिने डेरे।।2338।।