मै हरि सौ हो मान कियौ री।
आवत देखि आन बनितारत द्वार कपाट दियौ री।।
अपनै ही कर साँकर सारी, सधिहिं संधि सियौ री।
जौ देखौ तौ सेज सुमूरति, काँप्यौ रिसनि हियौ री।।
जब झुकि चली भवन तै बाहिर, तब हठि लौटि लियौ री।
कहा कहौ कछु कहत न आवे, तहँ गोबिंद बियौ री।।
बिसरि गई सब रोष, हरष मन, पुनि फिरि मदन जियौ री।
'सूरदास' प्रभु अति रति नागर, छलि मुख अमृत पियौ री।।2532।।