मैं हरि की मुरली बन पाई।
सुनि जसुमति सँग छाँड़ि आपनौ, कुंवर जगाइ देन हौं आई।।
सुनतहिं बचन बिहँसि उठि बैठे, अंतरजामी कुँवर कन्हाई।
याकैं संग हुती मेरी पहुँची, दै राधे वृषभानु-दुहाई।।
मै नाहिंन चित लाइ निहारयौ, चलौ ठौर सब देउँ बताई।
सूरदास प्रभु मिलि अंतर गति, दुहुँनि पढ़ी एकै चतुराई।।1186।।