मैं छोड़, प्रिये! तुमको -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


मैं छोड़, प्रिये ! तुमको, मथुरामें आया।
तुमपर दुख अति घनघोर घटा बन छाया॥
तुम प्रतिपल मन-ही-मन हो अविरत रोती।
मिथ्या ही खाती, मिथ्या निद्रा सोती॥
तुम एक पलक भी नहीं चैन चित पाती।
अंदर-ही-‌अंदर घुलती नित बिलखाती॥
भीतर जो भीषण अग्रि तुम्हारे जलती।
वह बिना जलाये नहीं किसी से टलती॥
छू जाय किसी की वृत्ति भूलसे जाकर।
जल जाती वह भी ताप भयानक पाकर॥
तुम पीड़ा अन्तर की न किसी से कहती।
ऊपर से हँसती-सी दुख दारुण सहती॥
मैं जान गया यह दुःख तुम्हारा, प्यारी !
है भडक़ उठी इससे उर ज्वाला भारी॥
था पहलेसे ही अति वियोग-दुख दुस्सह।
अब दोनों ने मिलकर धर दी तह-पर-तह॥
मेरी क्या दशा तुम्हें, प्यारी ! बतलाऊँ।
कैसे भीषण संताप तुम्हें दिखलाऊँ॥
बढ़ रही सुदारुण पल-पल उर की ज्वाला।
है पहनी जलते अंगारों की माला॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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