मेरे मन के धन तुम ही हो -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

वंदना एवं प्रार्थना

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राग भैरवी - ताल कहरवा

मेरे मन के धन तुम ही हो, तुम ही मेरे तन के श्वास।
आश्रय एक, भरोसा तुम ही, तुम ही एकमात्र विश्वास॥
मैं अति दीन सर्वथा सब विधि, हूँ अयोग्य असमर्थ मलीन।
नहीं तनिक बल-पौरुष, आश्रय अन्य नहीं, सब साधन-हीन॥
नहीं जानता भुक्ति-मुक्ति मैं, नहीं जानता है क्या बन्ध।
एक तुम्हारे सिवा कहीं भी मेरा रह न गया सबन्ध॥
नहीं जानता तुम कैसे हो, क्या हो, नहीं जानता तत्त्व।
‘तुम मेरे हो, मेरे ही’, बस तुमसे ही मेरा अपनत्व॥
दीनों को आदर देने, उनको अपनाने का नित चाव-
रहता तुम्हें, तुम्हारा ऐसा सहज विलक्षण मृदु स्वभाव॥
इस ही निज स्वभाव वश तुम दौड़े आते दीनोंके द्वार।
उन्हें उठाकर गले लगाते, करते उन्हें स्व-जन स्वीकार॥
जैसे शिशु मलभरा, न धो सकता गंदा मल किसी प्रकार।
नहीं जानता मल भी क्या है, केवल माँको रहा पुकार॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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