मेरे धन-जन-जीवन तुम ही -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा के प्रेमोद्गार-श्रीकृष्ण के प्रति

Prev.png
राग गूजरी- ताल कहरवा


मेरे धन-जन-जीवन तुम ही, तुम ही तन-मन, तुम सब धर्म।
तुम ही मेरे सकल सुखसदन, प्रिय निज जन, प्राणों के मर्म॥
तुम्हीं एक बस, आवश्यकता, तुम ही एकमात्र हो पूर्ति।
तुम्हीं एक सब काल सभी विधि हो उपास्य शुचि सुन्दर मूर्ति॥
तुम ही काम-धाम सब मेरे, एकमात्र तुम लक्ष्य महान।
आठों पहर बसे रहते तुम मम मन-मन्दिर में भगवान॥[1]
सभी इन्द्रियों को तुम शुचितम करते नित्य स्पर्श-सुख-दान।
बाह्यभ्यन्तर नित्य निरन्तर तुम छेड़े रहते निज तान॥
कभी नहीं तुम ओझल होते, कभी नहीं तजते संयोग।
घुले-मिले रहते करवाते करते निर्मल रस-सम्भोग॥
पर इसमें न कभी मतलब कुछ मेरा तुमसे रहता भिन्न।
हु‌ए सभी संकल्प भंग मैं-मेरे के समूल तरु छिन्न॥
भोक्ता-भोग्य सभी कुछ तुम हो, तुम ही स्वयं बने हो भोग।
मेरा मन बन सभी तुम्हीं हो अनुभव करते योग-वियोग॥

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. (दूसरा पाठ) आठों पहर सरसते तुम मन सर वर में रसबान॥

संबंधित लेख

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः