मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 17

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

3. अभेद और अभिन्नता

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कौशल्या माता को राम, लक्ष्मण और सीता- तीनों अपने सामने दीखते हैं तो वे सुमित्रा से पूछतीं हैं कि यह बताओ, अगर राम जी वन को चले गये हैं तो वे मेरे को दीखते क्यों हैं? और अगर वे वन को नहीं गये हैं तो मेरे चित्त में व्याकुलता क्यों है? कौशल्या जी की ये दो अवस्थाएँ हैं। इन दोनों अवस्थाओं में प्रेम प्रतिक्षण वर्धमान होता है।

भक्ति की अभिन्नता में अपनी तरफ देखते हैं तो भेद होता है कि मैं भगवान् का हूँ, भगवान् मेरे हैं। भगवान् की तरफ देखते हैं तो अभेद होता है कि एक भगवान् के सिवाय कुछ नहीं है। यह अभेद भक्ति में ही है, ज्ञानयोग में नहीं। भक्ति की अभिन्नता में भक्त भगवान् से भिन्न कभी होता ही नहीं। वह न संयोग (मिलन)-में भिन्न होता है, न वियोग (विरह)- में भिन्न होता है। ज्ञान में अपने स्वरूप का ज्ञान होता है, जो परमात्मा का अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके’।

ज्ञानयोग में साधक को एक तत्त्व से अभेद का अनुभव हो जाता है। परन्तु जिसके भीतर भक्ति के संस्कार होते हैं, उसको ज्ञान के अभेद में सन्तोष नहीं होता। अतः उसको भक्ति की प्राप्ति होती है। भक्ति में फिर भेद और अभेद होते रहते हैं, जिसको अभिन्नता कहते हैं। परन्तु ज्ञानयोग में केवल अभेद होता है। ज्ञानयोग में परमात्मा का अंश अपने स्वरूप में स्थित हो गया, अब उसमें भेद कैसे हो? उसमें अखण्ड आनन्द, अपार आनन्द, असीम आनन्द, एक आनन्द-ही-आनन्द रहता है। परन्तु भक्तियोग में अभिन्नता होती है। दो से एक होते हैं तो अभेद होता है और एक से दो होते हैं तो अभिन्नता होती है। अभेद में जीव की ब्रह्म के साथ एकता हो जाती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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