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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
3. अभेद और अभिन्नता
कर्मयोग और सांख्ययोग से ‘अभेद’ होता है और भक्तियोग से ‘अभिन्नता’ होती है। जहाँ-जहाँ ज्ञान का वर्णन है, वहाँ-वहाँ सत् और असत्, प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ, क्षर और अक्षर आदि का दो का वर्णन है; जैसे- ‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः’।[1]परन्तु भक्तियोग में दो वर्णन नहीं है, प्रत्युत एक भगवान के सिवाय कुछ भी नहीं है- ‘वासुदेवः सर्वम्’।[2]ज्ञानयोग में सत् अलग है और असत् अलग है, पर भक्तियोग में सत् भी भगवान् हैं और असत् भी भगवान् हैं- ‘सदसच्चाहमर्जुन’।[3]अभेद की अपेक्षा अभिन्नता में एक विलक्षणता है। अभिन्नता में कभी भेद होता है, कभी अभेद होता है। इसलिये अभिन्नता में प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम होता है। कर्मयोग और सांख्ययोग के द्वारा जो अभेद होता है, उसका आनन्द प्रतिक्षण वर्धमान नहीं है। जैसे दूध उबलता है तो दूध में उथल-पुथल होती है, ऐसे ही उधल-पुथल वाला जो आनन्द है, वह भक्ति का है और जो शान्त, एकरस आनन्द है, वह ज्ञान का है। भक्तियोग की अभिन्नता में दो बातें होती हैं- जब भक्त अपने को देखता है, तब वह भगवान् को अपना मालिक देखता है कि मैं भगवान् का दास हूँ और जब वह भगवान् को देखता है, तब वह अपने को भूल जाता है कि केवल भगवान् ही हैं; भगवान् के सिवाय कुछ है ही नहीं, हुआ ही नहीं, हो सकता ही नहीं। इस प्रकार भेद और अभेद दोनों होते रहते हैं, जिससे प्रेम प्रतिक्षण बढ़ता रहता है। गोस्वामीजी महाराज ने लिखा है- माई री! मोहि कोउ न समुझावै । |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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