मेरे तो गिरधर गोपाल -रामसुखदास पृ. 15

मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास

3. अभेद और अभिन्नता

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कर्मों से मनुष्य क्रिया और पदार्थ में फँसता है, पर कर्मयोग इन दोनों से ऊँचा उठाता है। इसलिये कल्याण करने की शक्ति कर्म में नहीं है, प्रत्युत कर्मयोग में है; क्योंकि कर्मों में योग ही कुशलता है- ‘योगः कर्मसु कौशलम्’।[1]साधारण मनुष्य कर्म करते हि रहते हैं और कर्मों का फल भी भोगते ही रहते हैं अर्थात् जन्मते-मरते रहते हैं। कर्म करने से उनका कल्याण नहीं होता। परन्तु कर्मयोग से कल्याण हो जाता है। कर्मयोग में निःस्वार्थ भाव से सेवा करने पर संसार का त्याग हो जाता है। सांख्ययोग में साधक सबको छोड़कर अपने स्वरूप में स्थित होता है। कर्मयोग में करने की मुख्यता है और सांख्ययोग में विवेक-विचार की मुख्यता है। इस प्रकार कर्मयोग और सांख्ययोग में बड़ा फर्क है। फर्क होते हुए भी दोनों का फल एक ही है। दोनों के द्वारा संसार से ऊँचा उठने पर मुक्ति हो जाती है। ये दोनों लौकिक साधन हैं; क्योंकि शरीर (जड़) और शरीरी (चेतन)- ये दोनों विभाग हमारे देखने में आते हैं, पर भगवान् देखने में नहीं आते। भगवान् को मानें या न मानें, यह हमारी मरजी है। इसमें विचार नहीं चलता। भगवान हैं- ऐसा मानना ही पड़ता है। फिर वह माना हुआ नहीं रहता, उसका अनुभव हो जाता है।

‘कर्म’ में परिश्रम है और ‘कर्मयोग’ में विश्राम है। परिश्रम पशुओं के लिये है और विश्राम मनुष्य के लिये है। शरीर की जरूरत परिश्रम में ही है। विश्राम में शरीर की जरूरत है ही नहीं। इससे सिद्ध हुआ कि शरीर हमारे लिये है ही नहीं। कर्मयोग में शरीर के द्वारा होने वाला परिश्रम दूसरों की सेवा के लिये है और विश्राम अपने लिये है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. गीता 2/50

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