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मेरे तो गिरधर गोपाल -स्वामी रामसुखदास
प्रार्थना
कृपा करके भी आपकी कृपा कभी तृप्त नहीं होती- ‘जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती’ [1]! ऐसी कृपा के कारण ही आप कृपा कर रहे हो! आप हमारे भीतर की सब बातें पूर्णतया जानते हो, पर जानते हुए भी उधर दृष्टि नहीं डालते और ऐसा बर्ताव करते हो कि मानो आपको पता ही नहीं, आप जानते हो नहीं! आपकी कृपा ही आपको मोहित कर देती है। आप अपने ही गुणों से मोहित हो जाते हो। आप अपना किया हुआ उपकार ही भूल जाते हो। अपनी दी हुई वस्तु को भी भूल जाते हो। देते तो आप हो, पर हम मान लेते हैं कि यह तो हमारी ही है! ऐसे कृतघ्न, गुणचोर हैं हम तो महाराज! पूत कपूत हो चाहे सपूत हो, पूत तो है ही। पूत कभी अपूत नहीं हो सकता। आपने गीता में कहा है कि जीव सदा से मेरा ही अंश है- ‘ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः’। अतः अपना पूत जानकर कृपा करो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ (मानस, बाल. 28/2)
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