मेरी कौन गति ब्रजनाथ -सूरदास

सूरसागर

प्रथम स्कन्ध

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राग केदारौ




मेरी कौन गति ब्रजनाथ।
भजन विमुखऽरु सरन नाहीं, फिरत विषयनि साथ।
हौं पतित, अपराध-पूरन, भरयौ कर्म-विकार।
काम क्रोधऽरु लोभ चितयौ, नाथ तुमहिं बिसार।
उचित अपनी कृपा करिहौ तबै तौ बनि जाइ।
सोइ करहु जिहि चरन सेवै सूर जूठनि खाइ।।।126।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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