मेरी उन राधा के शुचितम प्रेमराज्य में नहीं प्रवेश-
काम-भोग का मलिन, कभी भी, किंचित्, कहीं कल्पना-लेश॥
रागरहित श्रृंगार अनूठा, मोहरहित है पावन प्रेम।
सुख-वाञ्छा-विरहित ममता है, पूर्ण समर्पित योग-क्षेम॥
स्वादरहित सब खान-पान हैं, है अभिमान रहित अतिमान।
भोगबहुलता भोगरहित नित, प्रियतम-सुख की शुचितम खान॥
इन्द्रिय-तन-मन-प्राण-अहं-मति हैं प्रियतम के लिये तमाम।
नहीं कार्य कुछ निज का उनसे, करते सब प्रियतम का काम॥
संयमपूर्ण सहज ही होते जग में, जग के सब व्यवहार।
नहीं किसी से उनका मतलब, प्रियतम-सुख ही केवल सार॥
मेरी ऐसी हैं वे राधा त्रिभुवन-पावनि जीवनसाध्य।
नित्य-तृप्त श्रीमाधव की जो हैं पवित्रतम परमाराध्य॥