मेघबर्त्त मेघनि समुझावत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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मेघबर्त्त मेघनि समुझावत। बार-बार गिरि तनहि बतावत।।
पर्बत पर बरसहु तुम जाई। यहै कही हमकौं सुरराई।।
ऐसै देहु पहार बहाई। नाउँ रहै नहिं ठौर जनाई।।
सुरपति की बलि सब इहिं खाई। ताकौ फल पावै गिरिराई।।
जेंवत काल्हि अधिक रुचि पाई। सलिल देहु जिहिं तृषा बुझाई।।
दिना चारि रहते जग ऊपर। अब न रहन पावैं या भू पर।।
सूर मेघ सुरपतिहिं पठाए। ब्रज के लोगनि तुमहिं बिहाए ।।935।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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