मूरख, रघुपति-सत्रु कहावत?
जाके नाम, ध्यान, सुमिरन तैं, कोटि जज्ञ-फल पावत!
नारदादि सनकादि महामुनि, सुमिरत मन-बच ध्यावत।
असुर तिलक प्रहलाद, भक्त बलि, निगम नेति जस गावत।
जाकी घरनि हरी छल-बल करि, लायो बिलँब न आवत।
दस अरु आठ पदुम बनचर लै, लोजा सिंधु बँधावत!
जाइ मिलौ कौसल-नरेस कौं, मन अभिलाष बढ़ावत।
दै सीता अवधंस पाइँ परि, रहु लंकेस कहावत।
तू भूल्यौ दससीस बीस भुज,मोहिं गुमान दिखावत।
कंध उपारि डारिहौं भूतल, सूर सकल सुखपावत॥133॥