मूँदि रहे पिय प्यारी लोचन।
अति हित बेनी उर परसाए, वेष्टित भुजा अमोचन।।
कंचन-मनि-सुमेर अँग दोऊ, सोभा कही न जाइ।
मनौ पत्रगी निकसि बीच रही, हाटक गिरि लपटाइ।।
चपल नैन दीरघ अति सुंदर, खंजन तै अधिकाइ।
अति आतुर भय कारन धाई, धरत फनहिं न समाइ।।
मन हरषति, मुख खिझति सखिनि कहि चतुर-चतुरई-भाव।
'सूर' स्याम मनकामनि के फल, लूटत है इहिं दाव।।2203।।