मुरली हरि कौं भावै री -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग सूहौ


मुरली हरि कौं भावै री।
सदा र‍हति मुखहीं सौं लागी, नाना रंग बजावै री।।
छहौं राग छत्तीसौ रागिनि, इक इक नीकै गावै री।
जैसेहिं मन रीझत है हरि कौ, तैसिहिं भाँति रिझावै री।।
अधरनि कौ अंमृत पुनि अँचवति, हरि के मनहिं चुरावै री।
गिरिधर कौं अपनै बस कीन्हे नाना नाच नचावै री।।
उनकौ मन अपनौ करि लीन्हौ, भरि-भरि बचन सुनावै री।
सूरज-प्रभु ढ़िग तैं कहि बाकौं, ऐसौ कौन टरावै री।।1238।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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