मुरली हरि कौं नाच नचावति।
एते पर यह बाँस-बँसुरिया, नंद-नँदन कौं भावति।।
ठाढ़े रहत बस्य ऐसे ह्वै, संकुचत बोलत बात।
वह निदरे आज्ञा करवावति, नैकुँहुँ नाहिं लजात।।
जब जानति आधीन भए हैं, देखति ग्रीव नवावत।
पौढ़त अधर, चलित कर-पल्लव रंध्र-चरन पलुटावत।।
हम पर रिस करि-करि अवलोकत, नासा-पुट फरकावत।
सूर-स्याम जब-जब रीझत हैं, तब-तब सीस डुलावत।।1325।।