मुरली हम कहँ सौति भई।
नैकु न होति अधर तैं न्यारी, जैसे तृषा डई।।
इहँ अँचवति, डारति उहँ लै-लै, जल थल बननि बई।
जा रस कौं ब्रत करि, तनु गारयौ कीन्ही रई-रई।।
पुनि-पुनि लेति, सकुच नहि मानति, कैसर भई दई।
कहा भरै वह बांस साँस की, आस निरास गई।।
ऐसी कहूँ गई नहिं देखी, जैसी भई नई।
सूर बचन याके टोना से, सुनत मनोज जई।।1240।।