मुरली नहिं धरत धरनी -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मारू


मुरली नहिं धरत धरनी, कर तैं कहुँ टरति नाहिं, अधरनि धरि रहत खरे, ढरत स्याम भारी।
कबहुँ नाद भरत करत, अपनौ मन बस्य तहाँ, कबहुँ रीझि मगन होत, देखति बजनारी।।
कबहुँ लटकि जात गात, ताननि जब कहति बात, सुनत स्त्रवन रस-अघात लागति अति प्यारी।
जा हित तप कियौ गारि, सो रस लै देति डारि, धरनी-जल-डोंगर-बन-द्रुमनि मैं बृथा री।।
ऐसे ढँग किये आइ, हमकौं उपजी बलाइ ताकौं तुम भली कहति, नाहिं आदि जानी।
देखो याकौ उपाइ, जै जै तिहुँ भुवन गाइ सूर स्याम अपनो करि, दिन-दिन इतरानी।।1296।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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