मुरली धुनि बैकुंठ गई।
नारायन-कमला सुनि दंपति, अति रुचि हृदय भई।।
सुनौ प्रिया यह वानी अद्भुत, वृंदाबन हरि देखौ।
धन्य-धन्य श्रीपति मुख कहि-कहि, जीवन ब्रज की लेखौ।।
रास-बिलास करत नंद-नंदन, सो हमतैं अति दूरि।
धन्य बन-धाम, धन्य व्रज-घरनी, उड़ि लागै जौ धूरि।।
यह सुख तिहूँ भुवन मैं नाहीं, जो हरि सँग पल एक।
सूर निरखि नारायन इकटक, भूले नैन निमेष।।1064।।