मुरली जौ अधरनि तट लागी।
ज्यौं मरकट कर होत नारियर तैसैं इहौ अभागी।।
अंमृत लेति रहै यह हिरदौ, द्रवत साँस कैं मारग।
वै रुचि सौं अंचवावत, यह लै डारति बन-बन सारग।।
यह बिपरीति नहीं कहूँ देखी, स्याम चढा़ई सीस।
ना तरु सूर देखती मुरली, कहा वाहि कर बीस?।।1307।।